Monday, February 9, 2015

मोदी जी का उत्साह और अतिउत्साह

ज्ञानेन्द्र कुमार
रमेश सिप्पी के निर्देशन में बनी फिल्म शोले को भारतीय सिनेमा में रिलीज हुए 40 साल पूरे हो गए हैं मगर इसकी कहानी और डॉयलॉग आज भी लोगों के दिलोदिमाग में तरोताजा हैं। इसके चर्चित कैरेक्टर: जय और वीरू। आज बात जय और वीरू की दोस्ती पर। वैश्विक परिदृश्य में अगर देखा जाए तो इस समय जय और वीरू की दोस्ती के चर्चे आम हैं। अमेरिकी और भारतीय राजनीति की नजर से देखें तो यह जय कोई और नहीं अमेरिकी राष्टÑपति बराक ओबामा हैं और वीरू प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी। इस समय चीन, रूस सहित पूरा विश्व नए जय-वीरू की दोस्ती के किस्से सुन रहा है। दोनों की मित्रता, गर्मजोशी और अपनेपन से भारत तो अभिभूत हुआ ही है साथ ही अमेरिका भी। कहते हैं कि दोस्ती में कोई शर्त नहीं होती है मगर यह दोस्ती सशर्त है, जिसे पूरा विश्व देख रहा है। पाकिस्तान भी सोच में पड़ गया कि हम आका-आका करते रहे और दोस्त भारत बना ले गया। वाह री दोस्ती? खैर, नए जमाने के जय-वीरू की दोस्ती के अब मायने भी निकाले जाने लगे हैं। वो भी अपनी-अपनी तरह से। उत्साहित नरेन्द्र मोदी भी अतिउत्साहित हो जाते हैं, यह दोनों को देखकर पता चल गया। खैर, अतिउत्साह की बात आगे। वैसे, बराक ओबामा सिर्फ गणतंत्र दिवस की परेड में बतौर मेहमान शामिल हुए, उन्हें ऐसा लगा होगा मगर ‘आम आदमी पार्टी’ को ओबामा भाजपा के ‘स्टार प्रचारक’ के रूप में दिखाई दिए। ऐसा हो भी क्यों न, हमारे देश में स्टार प्रचारकों द्वारा वोट मांगने का रिवाज जो है।
   अब आम आदमी पार्टी को लगने लगा कि ओबामा के आने से कहीं ‘आम आदमी’ की जड़ें न हिल जाएं। पता नहीं ओबामा के आने से क्या दिल्लीवालों की जड़ें हिल पाएंगी? क्या वे ओबामा यात्रा से ‘प्रभावित’ न होकर ‘प्रवाहित’ हो जाएंगे जो एक-एक कर कमल को वोट देने लग जाएंगे? समझ नहीं आता कि नए जमाने के जय-वीरू पर सबकी निगाहें टेंढी क्यों हैं? एक हमारे प्रधानमंत्री जो नारी सशक्तीकरण को इतना जोर दे रहे हैं, यह लोगों को दिखाई नहीं देता है। महिला सम्मान की बात आए तो वो बोलकर नहीं बल्कि करकर दिखाते हैं फिर चाहे स्मृति ईरानी को मंत्रालय सौंपना ही क्यों न हो? नजमा हेपतुल्ला को अल्पसंख्यक मामले का मंत्री बनाना ही क्यों न हो? विदेश जैसे गंभीर मंत्रालय की जिम्मेदारी सुषमा स्वराज को देना ही क्यों न हो?
   मोदी बोलते नहीं बल्कि करके दिखाते हैं तभी तो गणतंत्र दिवस की परेड में जो आज तक न हुआ, वह हो गया। तीनों कमान की महिला विंग को पहली बार परेड में शामिल किया गया। भारतीय एयरफोर्स की अफसर पूजा ठाकुर को तीनों कमानों का ‘नेता’ नियुक्त किया गया। बराक ओबामा को गार्ड आॅफ आॅनर उन्हीं के द्वारा दिलाया गया। नारी सशक्तीकरण का सिलसिला यहीं भर नहीं रुका, मोदी के इशारे में भाजपा ने भी सिर झुकाकर दिल्ली में महिलाओं को प्रवेश दिया, फिर चाहे कितनी ही उपेक्षा क्यों न सहनी पड़ी हो? किरण बेदी को पार्टी में शामिल किया। ‘अपनों’ की अनदेखी और एक कदम आगे बढ़ते हुए उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया। आप के आरोपों से कहीं नारी सशक्तीकरण जरूर कमजोर हुआ होगा तभी मोदी जी ने पैंतरा बदलते हुए अपना चेहरा आगे कर दिया। दिल्ली में अब वोट सिर्फ मोदी को। मगर, जब वोट मोदी जी को तो क्या महिला सशक्तीकरण महज दिखावा था, क्या किरण बेदी मोदी ‘रबर की स्टांप’ हो जाएंगी। यदि दिल्ली में मोदी फीवर नहीं चला तो भाजपा की महिला सशक्तीकरण का क्या होगा? बात शाजिया इल्मी की भी होनी चाहिए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मार्कंडेय काटजू को लगता है कि शाजिया इल्मी, किरण बेदी से ज्यादा सुंदर हैं। यानि भाजपा महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा दे रही है या सुंदरता को या फिर दिल्ली के विकास को.. यह तो काटजू जी ही बता पाएंगे। दिल्ली में तो आम आदमी अभी भी ‘आम’ है जबकि इस नाम की पार्टी के प्रत्याशी खास हो गए हैं मगर हमारी बात तो नए जमाने के जय-वीरू पर हो रही थी न कि दिल्ली चुनाव पर।
   जय-वीरू की दोस्ती को ज्यादा समय नहीं हुआ है। इसे एक राजनीतिक दोस्ती भी कहा जा सकता है। वैश्विक स्तर पर वीरू की जबरदस्त मार्केटिंग के कारण जय को अपनी दोस्ती का ख्याल आया। जय ने वीरू को अमेरिका बुलाया। दोनों ने फिल्मी स्टाइल में एक-दूसरे को गले लगाया और शुरू हो गया दोस्ती का कारवां। अब बारी वीरू यानि मोदी जी की थी। झारखंड, महाराष्टÑ, हरियाणा में भाजपा की सरकार बन चुकी थी। जम्मू पर भाजपा का कब्जा हो चुका था मगर कश्मीर बाकी था। अगला नंबर दिल्ली और बिहार का था। समय 26 जनवरी। सब कुछ अच्छा। ओबामा ने भी न्योता स्वीकारा। वे दिल्ली आए। अब तक दोनों की दोस्ती राजनीतिक से कूटनीतिक कब हो गई, पता ही नहीं चला। मोदी जी की अफसरशाही टोली द्वारा मिलता फीडबैक उन्हें उत्साहित से ‘अतिउत्साहित’ करता चला गया। वो दोस्ती में इतने चूर हो गए कि बराक ओबामा को सच्चा मित्र मान बैठे और ‘बराक’ संबोधित करने लगे। लोगों खासकर भारत की जनता को इस बराक शब्द में गर्व महसूस हो रहा था। सार्वजनिक मौका था और मोदी जी को कोई टोक भी नहीं सकता था। उन्होंने ओबामा को चार बार बराक कहकर संबोधित किया। उनका संबोधन यहीं नहीं रुका। रेडियो पर मन की बात कार्यक्रम में भी उन्होंने बराक को बराक कहा। अब सवाल उठता है कि धुआं कहां उठा। यह बात भारत को तो खूब जमी पर किसे अच्छी नहीं लगी। उत्साहित मोदी का ‘अतिउत्साह’ ओबामा की टीम के अधिकारियों को अखर गया क्योंकि उन्होंने   अपने राष्टÑपति का ऐसा संबोधन शायद पहली बार ही सुना था। भारत में मौजूद अमेरिकी टीम से लेकर वाशिंगटन डीसी तक इसकी चर्चा हुई पर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? अमेरिकी अधिकारी भारतीय अधिकारियों से बोलते रहे पर किसकी हिम्मत थी जो मोदी जी को टोकते। सो मोदी जी का बराक उवाच जारी रहा। कहना गलत न होगा कि अतिउत्साही मोदी उवाच का अमेरिकी अधिकारियों पर गहरा असर पड़ गया इसीलिए भारत यात्रा के अंतिम दिन ही दोस्ती में ‘दरार’ दिखाई देने लगी। जाते-जाते ओबामा भारत को धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ा गए। क्या भारत को इस सीख की जरूरत थी? नहीं, बावजूद इसके भारत पर धर्मनिरपेक्षता का ओबामा उवाच क्यों उड़ेला गया? यह मोदी जी का अतिउत्साह ही था जो कि धीरे-धीरे अमेरिका की गलियों से भारत आ रहा है। इतना होने के बाद भी मोदी जी अमेरिका की चाल नहीं समझे। शायद ऐसा पहली बार ही देखने में आया है जो मोदी जी इतने अतिउत्साही हो गए हों। जो अमेरिका देश भारत को स्थायी सदस्यता देने की वकालत तक नहीं करता था, जिसने मोदी जी का ही वीजा रोक रखा था, वो देश और उसका राष्टÑाध्यक्ष कैसे मोदी जी का इतना विश्वसनीय मित्र हो सकता है? कहना गलत न होगा कि वैश्विक स्तर पर मोदी जी ने जो मार्केटिंग की थी, क्या अमेरिका ने भी भारत में वैसी ही मार्केटिंग का सहारा लिया। अब बराक ओबामा अपने बयानों से ही भारतीय राजनीति में सियासी भूचाल लाने में जुटे हैं जो कि मोदी जी का अतिउत्साह कम करने की ‘दवा’ मात्र है। एक खास रणनीति के तहत ओबामा का अमेरिकी थिंक टैंक कूटनीतिक तरीके से भारत को यह बताने और जताने की कोशिश कर रहा है कि हम सिर्फ व्यापारी हैं, कोई मित्र नहीं। भारत को भी यह जल्द समझना होगा।

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