Thursday, June 11, 2015

ऐसी पंचायतें और ऐसे ‘भगवान’...!



ज्ञानेन्द्र कुमार
पखवाड़े पुरानी ही बात है, जब हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर एक सभा में पंचायतों को भगवान बता रहे थे और इनके वजूद को जायज ठहराते हुए उन्होंने उनके फैसलों को सिर-आंखों लेने की बात कही मगर पंचायत खासकर खाप पंचायतों के फैसलों को देखा जाए तो ये खाप ‘अवैध जेहादी’ जैसे लगते हैं। बात 12 मई की है। फरीदाबाद में एक नाबालिग लड़की के साथ दो लोगों ने दुष्कर्म किया। मामला पंचायत में आया। पीड़ित परिवार ने भी पंचायत को ‘पंच परमेश्वर’ मानते हुए अपनी पीड़ा उनके सामने रखी मगर पंचों ने 50 हजार रुपए जुर्माना और पांच जूते मारने की सजा सुनाकर सबको अचरज में डाल दिया। इस सजा के बाद मन टीस रहा है कि ये कैसे ‘परमेश्वर’ हैं? यदि मुख्यमंत्री की भाषा में कहा जाए तो ये कैसे ‘भगवान’ हैं? ऐसी पंचायतें और ऐसे भगवान हों तो कहां मिलेगा इंसाफ? नारी के ममत्व पर हमला करने वाला फैसला करने वाली पंचायतें यह क्यों भूल जाती हैं कि यह देश सनातन धर्म संस्कृति का देश है जहां खुद भगवान शिव ने शक्ति की उपासना की। माता पार्वती को अर्धांगिनी बनाया। मां दुर्गा, काली को शक्ति के रूप में अवतरित किया, वो इसलिए क्योंकि समाज नारी के महत्व को समझे। क्या ये पंच नवरात्रि नहीं मनाते हैं, यदि मनाते हैं तो ऐसे वीभत्स फैसले कैसे दे सकते हैं? पंचायतों में आखिर पुरुष प्रधानता का वर्चस्व कैसे टूटेगा? हरियाणा की पंचायतें भी हतप्रभ करने वाले ऐसे फरमान सुनाती हैं क्योंकि उनके ऊपर खापों का असर साफ है।
14 अक्टूबर, 2012 का वाक्या याद आता है। तब सोनीपत में एक खाप पंचायत हुई थी। इसमें बलात्कार को रोकने के तरीकों पर बकायदा चर्चा की गई थी। जाट महासभा भवन के बड़े हॉल में विभिन्न खापों से करीब 100 लोग एकत्रित हुए। इसमें एकमात्र महिला थी। कई विचार आए। बलात्कारियों को अपराधी कहा गया। एक बुजुर्ग सदस्य ने पुरजोर तरीके से अपनी बात रखी कि लड़के और लड़कियों को स्कूल में साथ नहीं पढ़ाया जाए क्योंकि कम उम्र में जवानी जोश मारती है। रही सही कसर एक और बुजुर्ग ने पूरी कर दी। उन्होंने अपने हाथों को शरीर पर फेरते हुए बताया था कि टीवी में कैसे लड़का और लड़की लिपटते हुए दिखाई देते हैं और इन दृश्यों से कैसे वासना भड़कती है? कुछ ने शादी की उम्र 18 की जगह 16 करने पर जोर दिया। उनका तर्क था कि प्रजनन की क्षमता तो 12 साल में ही आ जाती है और अगर लड़की किसी के साथ भाग जाती है तो माता-पिता क्या करेंगे? ऐसा नहीं था कि किसी भी सदस्य ने ये बातें हवा में कही हों, यकीनन वैज्ञानिक तर्क भी दिए गए और तर्क ये थे कि अगर लड़की और उसके माता-पिता 15 साल की उम्र में शादी को तैयार हैं तो फिर कानूनी रोक क्यों? उस पंचायत में ये समाधान वे लोग दे रहे थे जिन्हें मुख्यमंत्री खट्टर ने ‘भगवान’ का दर्जा दिया है। वैज्ञानिक तर्क के साथ पंचायत में इस बात पर जोर दिया जा रहा था कि संविधान के आगे भी खाप पंचायतों को सर्वोपरि कैसे बनाया जाए? पंचायतों का सीधा मतलब ये था कि बाल विवाह को मंजूरी मिले। पूरी पंचायत लड़कियों पर ही केंद्रित थी। तथाकथित रूप से बेटियों के पैरों पर जंजीरें डाली जा रही थीं। पूरी पंचायत में आखिर ऐसा कोई प्रस्ताव क्यों नहीं आया कि लगाम लड़कों पर भी लगाई जानी चाहिए। लड़की कोई भेड़-बकरी नहीं है कि उसे आप घर के आंगन में बांध दें और चारा देते रहें। लड़कों को शिक्षा, सीख, संस्कार, नसीहत क्या ये जरूरी नहीं है? क्या लड़कों को यह नहीं बाताना चाहिए कि लड़कियां ताड़ने के लिए नहीं होतीं? क्या लड़कों को लड़कियों के प्रति आदर के संस्कार नहीं देने चाहिए? क्या लड़कों को यह नहीं सिखाना चाहिए कि गंदगी नजरों में नहीं रखनी चाहिए, बल्कि समाज को साफ करने में जोर देना चाहिए? आखिर इन बिगड़ैल लड़कोें को कौन सिखाएगा? इसके लिए पंचायतों में कब बहस होगी ओर कब कोई प्रस्ताव पास होगा? आखिर पंचायतें कब तक स्त्री केंद्रित रहेंगी? आखिर कब इन पंचायतों का रुख बदलकर शिक्षा, संस्कार और विकास की ओर जाएगा?
हरियाणा की पंचायतें अपने बेढंगे फरमानों के लिए शुरू से ही सुर्खियों में रही हैं। वो इसलिए क्योंकि जिन दो युवकों ने नाबालिग से दुष्कर्म किया है, उन्हें परोक्ष रूप से पंचायतों का संरक्षण प्राप्त है, नहीं तो पंचायतों का फैसला कुछ और ही होता जो पूरे प्रदेश सहित देश के लिए एक मिसाल हो सकता था। यकीनन, इन फैसलों से लड़कों की मानसिकता लड़कियों के प्रति और बलवती होती जाएगी। यदि ऐसे ही फैसले होते रहे तो आने वाले समय में हरियाणा के लिए दुष्कर्म अपराध नहीं होगा बल्कि रसूख हो जाएगा, जिसमें सिर्फ बेटियां पिसेंगीं। चाहे आपकी या हमारी। दोहरी मार सिर्फ बेटियां खाएंगी और इसके जिम्मेदार सिर्फ ये तथाकथित ‘भगवान’ होंगे, और कोई नहीं। अंधकार के ऐसे समय में राष्टÑीय अनुसूचित जाति आयोग के उपाध्यक्ष की पंचायतों पर कार्रवाई की टिप्पणी उसी लौ के समान है जो सद्बुद्धि और सद्मार्ग का रास्ता दिखा रहा है। सोनीपत की उस सभा में एक सज्जन ने तो यह तक कह दिया था कि यदि लड़की नहीं चाहे तो आप उससे बलात्कार नहीं कर सकते, चाहे तो कोशिश करके देख लेना? ये लड़की ही होती है जो किसी लड़के के साथ भाग जाती है, फिर बलात्कार के आरोप लगते हैं। यहां इन सज्जन को कोई यह बताने वाला नहीं था कि नाबालिग लड़की की गैंगरेप   में कितनी सहमति होती है? ऐसे लोगों ने ही नारीत्व का मर्दन कर रखा है। कहते हैं बच्चे देश का भविष्य होते हैं मगर इन कहावत में कहीं नहीं कहा गया कि ये लड़कों के लिए ही कही गई है। कल्पना चावला जैसी उड़ान भरने की क्षमता रखने वाली बेटियां जो लड़कों से कहीं भी कमतर नहीं हैं, साइना नेहवाल, सानिया मिर्जा, मैरीकॉम जैसी बेटियां जो जब मेडल जीतती हैं तो हर भारतीय का सिर फख्र से ऊंचा कर देती हैं, ऐसे लाखों सपने लिए जवान होती बेटियां असंस्कारहीन लड़कों की गंदी नजरों की भेंट चढ़ रही हैं और उन्हें ढांढस बंधाने तक के लिए कोई सामाजिक व्यवस्था अभी तक हमारे देश में नहीं बन सकी है। खाप पंचायतों की भी भूमिका इसमें नगण्य है। खाप पंचायतों से खासकर उम्मीद इसलिए की जाती है क्योंकि उनका वर्चस्व यहां सबसे ज्यादा है। यदि खापों का अस्तित्व बचाना है तो पंचायतों को अब अपनी जिम्मेदारी युवाओं को दे देनी चाहिए, जिसमें सबसे पहले बेटियों का चयन किया जाना चाहिए क्योंकि बेटियों को अब कमतर नहीं आंकना चाहिए। उनके नेतृत्व में खाप पंचायतें विकास करेंगीं, इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि बेशर्म लड़के शर्मदार बन जाएंगे।

संगठित उद्योगों के नीचे दबा असंगठित मजदूर

अंतरराष्टÑीय मजदूर दिवस पर विशेष
ज्ञानेन्द्र कुमार
बात 1806 की है जब अमेरिका में लगभग फैक्ट्री व्यवस्था शुरू हुई थी तब फिलाडेल्फिया के जूता कामगारों ने हड़ताल कर दी थी। अमेरिकी सरकार ने इन हड़ताली कामगारों के नेताओं पर साचिश रचने के आरोप में मुकदमे चलाए। इन मुकदमों से यह बात सामने आई कि मजदूरों से 19 या 20 घंटे तक काम कराया जा रहा है। यानि सूर्योदय से सूर्यास्त तक मजदूर काम करते थे। 1827 में भी फिलाडेल्फिया में काम के घंटे 10 करने के लिए निर्माण उद्योग के मजदूरों को एक हड़ताल कराने का श्रेय जाता है। यह मामला इसलिए चर्चा में आया क्योंकि मैकेनिक्स यूनियन आॅफ फिलाडेल्फिया दुनिया की पहली ट्रेड यूनियन मानी जाती है जिसके अधीन मजदूरों ने हड़ताल की थी। वहीं 1834 में न्यूयॉर्क में नानबाइयों की हड़ताल के दौरान वर्किंग मेन्स एडवोकेट नामक अखबार ने छापा था, ‘पावरोटी उद्योग में लगे कारीगर सालों से मिस्र के गुलामों से भी ज्यादा यातनाएं झेल रहे हैं। उन्हें हर 24 में औसत 18-20 घंटे तक काम करना होता है।’ 10 घंटे के कार्यदिवस की मांग ने इन इलाकों में एक आंदोलन का रूप ले लिया। इसी के चलते वॉन ब्यूरेन की संघीय सरकार को सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए काम के घंटे 10 करने की घोषणा करनी पड़ी। इसी के साथ विश्व में काम के घंटे 10 करने का संघर्ष शुरू हो गया। जैसे ही यह मांग कई उद्योगों ने मान ली, काम के घंटे 8 करने की मांग शुरू हो गई।
वर्तमान में विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में भी मजदूरों के हितों का अंग्रेजी व्यवस्था के अनुरूप ही ध्यान रखा जाता है मगर अधिकांशत: यह कागज तक ही सीमित रहता है। सच्चाई आज भी वही है जो 1806 में मजदूरों के साथ थी। तब मजदूरों के काम के घंटे सीमित नहीं थे। सरकारी, रक्षा तथा आयुध क्षेत्र में तो मजदूरों के आठ घंटे काम के हितों का संरक्षण हो गया मगर संगठित उद्योगों के बीच असंगठित मजदूरों की जान आज भी घिसट रही है। शहरों में बसे औद्योगिक क्षेत्र में मजदूर आज भी पुरानी व्यवस्था में जीने को मजबूर हैं। फर्क बस इतना है कि आठ की जगह नौ से 12 घंटे तक काम लिया जाता है। यही नहीं बिजली, सेतु जैसे कई सरकारी विभाग हैं जहां मजदूरों को मिलने वाली बीमा जैसी सुविधाओं से भी वंचित रखा जाता है। यह सब ठेका व्यवस्था (आउटसोर्सिंग) पनपने के कारण हुआ है। बिजली निगम के अधीन काम करने वाले ठेका मजदूरों को तो मौत के बाद उचित मुआवजा भी नहीं मिल पाता है। यदि वह गंभीर हो गया तो उसका इलाज उसके लिए सबसे बड़ी समस्या बन जाती है। बिजली निगम तो संविदा कर्मचारी कहकर पल्ला झाड़ लेती है जबकि अधिकांश ठेकेदार मजदूर के बीमे की रकम गबन कर जाते हैं, यही नहीं मासिक वेतन भी दो से तीन माह तक लटका देते हैं। ऐसी स्थित में ये मजदूर ठगे से खड़े रह जाते हैं।
देश के औद्योगिक क्षेत्रों में कानपुर एक बड़ा नाम है। यहां के औद्योगिक क्षेत्रों में मजदूरों की समस्या हमेशा से रही है। बिहार, झारखंड से जीवन यापन करने के नाम पर लोग यहां आ जाते हैं जो कम से कम दाम पर मजबूरी में मजदूरी कर रहे हैं। इन्हें फैक्ट्री मालिकों का बंधक मजदूर भी कहना कुछ गलत न होगा। इन मजदूरों की जरूरत बस इतनी है कि वे घरों से दूर काम करने निकले हैं, कुछ पैसे बनाने निकले हैं, जिससे अपना व अपने परिवार का जीवन यापन कर सकें। इस संपन्न औद्योगिक क्षेत्र में कागजों पर तो मजदूर खूब पूरा पैसा पाते हैं मगर सच्चाई यह है कि चाहे चमड़े का काम हो या फिर रांगा गलाने तथा चुर्री बनाने का ही काम क्यों न हो, यहां मजदूरों की प्रतिदिन की कमाई 2013 तक 60 रुपये थी तथा काम के घंटे नौ थे। इसके ऊपर इन्हें ओवरटाइम भी दिया जाता था, जिसमें न के बराबर रुपये दिए जाते थे मगर इसके लिए ये अधिक समय तक ज्यादा काम करते थे। दुर्भाग्य, अभी तक इन मजदूरों की स्थिति यही है। अब फर्क यह है कि वेतन 100 रुपये तक प्रतिदिन मिलने लगा है। पीतल ढलाई कारखानों में तो छोटे बच्चों से 20 से 50 रुपये प्रतिदिन पर आज भी काम चलाया जाता है। कुछ ऐसी ही हालत अगरबत्ती उद्योग की भी है। यहां अगरबत्ती निर्माण में लगे मजदूरों से 12 घंटे तक काम लिया जा रहा है और पूरा वेतन उन्हें इसलिए नहीं दिया जाता है कि वे अगले दिन काम पर आएं। शरीर के निढाल होने तक मजदूर काम कर रहा है जबकि
उसकी सुविधाओं को परखने का काम करने वाला सरकारी तंत्र कमीशन बटोरकर अपने एसी घरों में चैन से सो रहा है।
मजदूर क्रांति संघर्ष के साक्षी अलेक्जेंडर ट्रैक्सर्नबर्ग लिखते हैं कि पचास के दशक के दौरान लेबर यूनियनों को संगठित करने की गतिविधियों ने आठ घंटे काम की इस नई मांग को काफी बल दिया। यह मांग भी कुछ सुसंगठित उद्योगों ने मान ली। इसके बाद यह आंदोलन अमेरिका के अलावा रूस सहित हर उस जगह प्रचलित हो गया जहां उभरती हुई पूंजीवादी व्यवस्था के तहत मजदूरों का शोषण हो रहा था। यह बात इस तथ्य से सामने आती है कि अमेरिका से पृथ्वी के दूसरे छोर पर स्थित आॅस्ट्रेलिया में निर्माण उद्योग के मजदूरों ने यह नारा दिया, ‘आठ घंटे काम, आठ घंटे मनोरंजन, आठ घंटे आराम।’ उनकी यह मांग 1856 में मान ली गई। कई राज्य सरकारों ने आठ घंटे के काम का कानून पास करना स्वीकार कर लिया था। अमेरिकी कांग्रेस ने 1868 में यह कानून पारित कर दिया। अमेरिकियों के साथ ही यह कानून देश में भी आ गया। अंग्रेज चले गए, कानून रह गया। समय-समय पर संशोधित भी हुआ। कागजों पर इसके कई ग्राफ बने मगर जमीनी हकीकत यह है कि मजदूरों को उनके हक का लाभ आज भी नहीं मिल पा रहा है।

Saturday, January 3, 2015

अब प्लानिंग नहीं पॉलिसी बनेगी


स्वतन्त्रता दिवस पर योजना आयोग को खत्म करने के प्रधानमंत्री के बयान के बाद मुझे जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की वो बात याद आ रही है जब उन्होंने कहा था कि योजना आयोग मुख्यमंत्रियों की हाजिरी  की जगह है। वहां मुख्यमंत्री याचक बनकर जाता है जबकि उसे राज्य के हिसाब से कुछ नहीं मिलता है। उमर अब्दुल्ला की यह पीड़ा सिर्फ अकेले उनकी नहीं है, कमोबेश भारत के सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की है। यही नहीं खुद प्रधानमंत्री के दिल में भी एक टीस है क्योंकि प्रधानमंत्री बनने से पूर्व वह गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके हैं तब उन्हें भी याचक की तरह योजना आयोग के दफ्तर में हाजिरी लगानी पड़ती थी। अब जब नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री हैं तब उन्हें अपने दिल में चुभी ‘याचक की फांस’ निकालने का अवसर मिल गया। उन्होंने अपने बड़े मुद्दों में योजना आयोग के प्रारूप को बदलने को भी वरीयता दी। यकीनन, योजना आयोग का प्रारूप बदलते समय उन्हें अपने दिल  में चुभी ‘याचक की फांस’ नजर आई होगी तभी उन्होंने नीति आयोग में राज्यों की सहभागिता पर विशेष ध्यान दिया है। यह जानना आवश्यक है कि प्रधानमंत्री ने नीति (नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफार्मिंग इंडिया) आयोग का प्रारूप सिर्फ हवा में ही नहीं तय कर दिया। उन्होंने नीति आयोग नाम रखने से पहले बेहद कड़ा मंथन किया होगा क्योंकि यह सिर्फ आयोग  का नाम भर बदलने की बात नहीं थी, उन्हेंं देश की जनता को यह भी बताना था कि प्लानिंग को पॉलिसी में कैसे बदला जाता है? प्रबंधन का प्रथम सूत्र ही प्लानिंग होता है यानि किसी रूपरेखा का ढांचा तैयार करना। यही काम केंद्र सरकार के योजना अयोग द्वारा सभी राज्यों के लिए समान रूप से किया जाता था मगर प्लानिंग तो प्रबंधन के सूत्र का पहला वाक्य है। प्लानिंग सही भी हो सकती है ओर गलत भी। सही प्लानिंग देश और राज्यों को विकास के पथ पर ले जाती है जबकि गलत प्लानिंग बेड़ागर्क कर देती है। योजना आयोग द्वारा राज्यों के विकास को लेकर बराबर प्र्लांनग तो की जा रही थी मगर आयोग खुद तय नहीं कर पा रहा था कि क्या प्लानिंग वाकई सही दिशा में हो रही  है क्योंकि राज्यों की भौगोलिक परिस्थिति के हिसाब से उनकी क्षेत्रीय समस्याओं को आयोग द्वारा तरजीह नहीं मिल पा रही थी, इसी बात से साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि योजना आयोग कितना सफल था? दिल्ली में बैठकर असम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, उड़ीसा जैसे राज्य और पांडिचेरी, दमनद्वीप, अंडमान नीकोबार जैसे केंद्र शासित प्रदेशों के विकास का खाका खींचा जाता था और जब दिल्ली में विकास की भूमिका गड़ी जाती थी तब इन राज्यों की संरचनाओं और समस्याओं को तरजीह भी नहीं दी जाती थी। यही कारण था कि कोई भी राज्य और राज्यों के मुख्यमंत्री योजना आयोग के कामकाज से संतुष्ट नहीं थे। खुद नरेन्द्र मोदी भी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब योजना आयोग से खिन्न रहते थे। उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री लंबे समय तक गुजरात का प्रतिनिधित्व किया है। शायद इसीलिए उन्होंने देश की अग्रणी समस्याओं में योजना आयोग को भी शामिल किया है।
लाल किले की प्राचीर पर 15अगस्त को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी  ने अवाम से कई वायदे किए थे। इसमें सफाई अभियान, मेक इन इंडिया और योजना आयोग के प्रारूप का बदलाव भी शामिल था। प्रधानमंत्री साफगोई से अपने उन वादों को एक-एक कर पूरा करते नजर आ रहे हैं। देश के स्वतंत्रता दिवस पर किया गया पहले वादे की शुरुआत उन्होंने महात्मा गांधी की जयंती यानि दो अक्टूबर से की। स्वस्थ समाज स्वच्छ समाज के नारे के साथ गांधी जी को समर्पित देश भर में सफाई अभियान शुरू कर दिया गया। बतौर प्रधानमंत्री अभियान की शुरुआत करते हुए उन्होंने खुद झाड़ू उठाई। अकबर के नौरत्न की तर्ज पर उन्होंने भी सफाई के नौरत्न तैयार किए। अमेरिका जाने से पूर्व प्रधानमंत्री ने मेक इन इंडिया का स्वागत करते हुए दुनिया को बताया कि विश्व में युवाओं का सबसे बड़ा बाजार इस समय भारत है। विश्व पटल पर उन्होंने भारत की विकास यात्रा को तेजी दिलाई। चीन की तर्ज पर भारत में भी बुलेट टे्रन के सपने को साकार करने की पहल भी उन्होंने ही की। देश की सबसे पहली बुलेट ट्रेन के लिए मुंबई-अहमदाबाद मार्ग भी तय कर दिया गया। मोदी ने किसी भी बड़ी लकीर को छोटा नहीं किया बल्कि उन्होंने अपनी लकीर को ही इतना बड़ा कर दिया कि बाकी लकीरें छोटी दिखाई पड़ने लगीं। मुझे लगता है कि केंद्र सरकार यदि रेलगाड़ी का इंजन है तो राज्य सरकारें डिब्बा हैं। इसलिए रेलगाड़ी को विकास पथ पर तेजी से दौड़ाना है तो दोनों में मितव्ययता, सामंजस्य और एक साथ चलने की परंपरा को पैदा करना होगा। भारतीय राजनीति में हमेशा से ही राज्य और केंद्र में समन्वय न होने के आरोप लगते रहे हैं। केंद्र में जिस पार्टी की सत्ता होती है, राज्यों में दूसरी पार्टी के मुख्यमंत्री हमेशा आरोप लगाते हैं कि केंद्र ने राज्य के विकास की ओर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने विकास के लिए जो पैकेज केंद्र से मांगा था वह जारी ही नहीं किया गया। अब नरेन्द्र मोदी ने इस विवाद को ही जड़ से खत्म कर दिया है। इसीलिए, नीति आयोग के पीछे उन्होंने प्लानिंग को नहीं बल्कि पॉलिसी को तवज्जो दी है। इसका खाका भी बेहद खूबसूरत तैयार किया गया है। इसमें राजयों को शक्तिशाली बनाया गया है जो विकास के लिए बेहद जरूरी है।
देश के विकास के लिए प्रधानमंत्री को योजना आयोग की जगह नीति आयोग क्यों बनाना पड़ा, इस पहलू पर भी थोड़ा गौर करते हैं। आजादी के बाद प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू  की अगुआई में योजना आयोग का गठन 15 मार्च 1950 को हुआ था। प्रधानमंत्री इसके चेयरमैन थे। इसके बाद डिप्टी चेयरमैन का पद था। विभिन्न क्षेत्रों के जानकार व अर्थशास्त्रियों में कुछ इसके सदस्य होते थे। लोगों का जीवन स्तर सुधारना ही इसके गठन का मकसद था। संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल, उत्पादन में वृद्धि और रोजगार के अवसर बढ़ाने के साथ ही सभी संसाधनों के आकलन की जिम्मेदारी भी योजना आयोग के पास थी। योजना आयोग का सबसे कमजोर पक्ष राज्यों की भूमिका को लेकर था क्योंकि नीति-नियंता दिल्ली में बैठकर राज्यों की रूपरेखा तैयार कर देते थे। राज्यों की भूमिका इसमें कोई खास नहीं थी। केंद्रीय स्तर पर योजनाएं बनती थीं जो सभी राज्यों में लागू होती थीं। राज्य विशेष की जरूरतों का ख्याल नहीं रखा जाता था। राज्य हर साल योजना राशि बढ़वाने के लिए चक्कर लगाते रहते थे। राज्यों में विरोधी दल की सरकारों के साथ भेदभाव के आरोप भी खूब लगे। योजना आयोग के काम का तरीका भी केंद्र से राज्यों की ओर एकतरफा था। योजना आयोग ने पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत की। पहली योजना 1951 में लागू की गई। 65 साल में 12 योजनाओं पर करीब 200 लाख करोड़ रुपये खर्च हुए। शुरू की आठ योजनाओं में सार्वजनिक क्षेत्र पर जोर था। बुनियादी और भारी उद्योगों में काफी निवेश किया गया। नौवीं योजना से सार्वजनिक क्षेत्र पर जोर कम हो गया।
वहीं केंद्र ने नीति आयोग का जो ढांचा तैयार किया है उसमें प्रधानमंत्री अध्यक्ष होंगे। पहले की परंपरा से हटते हुए इसमें सीईओ जैसे पद को शामिल किया गया है साथ ही वाइस चेयरमैन (उपाध्यक्ष) भी रहेंगे। इन दोनों पदों पर नियुक्ति प्रधानमंत्री करेंगे। कुछ पूर्णकालिक सदस्य होंगे। इनकी संख्या अभी तय नहीं की गई है। दो पार्ट टाइम सदस्य विश्वविद्यालयों और रिसर्च संस्थानों से जुड़े होंगे। चार केंद्रीय मंत्री पदेन सदस्य होंगे। विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ आमंत्रित सदस्य के रूप में शामिल होंगे। इन्हें भी प्रधानमंत्री नामित करेंंगे। नीति आयोग में राज्यों की भूमिका पर विशेष जोर दिया गया है। दो राज्यों के बीच या क्षेत्रीय विवाद निपटाने के लिए क्षेत्रीय काउंसिलें बनेंगी। इसमें क्षेत्र विशेष के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल होंगे। इसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री या उनके द्वारा नामित व्यवक्ति करेंगे। नीति आयोग का ध्येय वाक्य ही है- मजबूत राज्य ही मजबूत राष्ट्र का गठन करते हैं। नीति आयोग के क्रियान्वयन के लिए आयोग  ऐसा सिस्टम बनाएगा, जिससे गांव स्तर पर योजनाएं बन सकें ओर उन्हें सरकार में शीर्ष स्तर तक पहुंचाया जा सके। आयोग समाज के उस तबके पर विशेष ध्यान देगा जिन्हें विकास का पूरा लाभ नहीं मिल रहा है। दीर्घकालिक नीति बनाने के अलावा अमल का तरीका भी बताया जाएगा। सबसे बड़ी बात कि कितना काम हुआ और नीति कितनी प्रभावी है, आयोग इस पर भी नजर रखेगा। हालांकि आयोग में सीईओ की परिपाटी पहली बार शुरू की जा रही है, इसलिए इसमें कामकाज भी कॉरपोरेट संस्कृति से किया जाएगा। सीईओ भारत सरकार में सचिव स्तर के अधिकारी होंगे मगर प्रश्न उठता है कि एयर कंडीशन में बैठकर नीति बनाने वाले अफसर क्या कॉरपोरेट कल्चर जैसा माहौल बना पाएंगे? कॉरपोरेट कल्चर लाना एक बात है जबकि उस कल्चर में सरकारी अधिकारियों का काम करना दूसरी बात। मोदी सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि सरकारी मशीनरी तंत्र से जाम अफसर कॉरपोरेट कल्चर भी सीख सकें। दूसरी ओर, योजना आयोग का अपग्रेडेशन कांग्रेस को रास नहीं आ रहा है। कांग्रेस ने भाजपा पर नया आयोग बनाकर नेहरू की विरासत को खत्म करने जैसा आरोप लगाया है। कांग्रेस विकास नहीं बल्कि केंद्र के इस व्यवस्था परिवर्तन से नाराज है। वह नीति आयोग पर भाजपा को घेरने की रणनीति जरूर तैयार करेगी, इसलिए मोदी सरकार को इससे उबरने के लिए भी नीति आयोग को चुनौतीपूर्ण ढंग से विकास पथ न सिर्फ चलाना होगा बल्कि दौड़ाना होगा।

- ज्ञानेन्द्र