Thursday, June 11, 2015

ऐसी पंचायतें और ऐसे ‘भगवान’...!



ज्ञानेन्द्र कुमार
पखवाड़े पुरानी ही बात है, जब हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर एक सभा में पंचायतों को भगवान बता रहे थे और इनके वजूद को जायज ठहराते हुए उन्होंने उनके फैसलों को सिर-आंखों लेने की बात कही मगर पंचायत खासकर खाप पंचायतों के फैसलों को देखा जाए तो ये खाप ‘अवैध जेहादी’ जैसे लगते हैं। बात 12 मई की है। फरीदाबाद में एक नाबालिग लड़की के साथ दो लोगों ने दुष्कर्म किया। मामला पंचायत में आया। पीड़ित परिवार ने भी पंचायत को ‘पंच परमेश्वर’ मानते हुए अपनी पीड़ा उनके सामने रखी मगर पंचों ने 50 हजार रुपए जुर्माना और पांच जूते मारने की सजा सुनाकर सबको अचरज में डाल दिया। इस सजा के बाद मन टीस रहा है कि ये कैसे ‘परमेश्वर’ हैं? यदि मुख्यमंत्री की भाषा में कहा जाए तो ये कैसे ‘भगवान’ हैं? ऐसी पंचायतें और ऐसे भगवान हों तो कहां मिलेगा इंसाफ? नारी के ममत्व पर हमला करने वाला फैसला करने वाली पंचायतें यह क्यों भूल जाती हैं कि यह देश सनातन धर्म संस्कृति का देश है जहां खुद भगवान शिव ने शक्ति की उपासना की। माता पार्वती को अर्धांगिनी बनाया। मां दुर्गा, काली को शक्ति के रूप में अवतरित किया, वो इसलिए क्योंकि समाज नारी के महत्व को समझे। क्या ये पंच नवरात्रि नहीं मनाते हैं, यदि मनाते हैं तो ऐसे वीभत्स फैसले कैसे दे सकते हैं? पंचायतों में आखिर पुरुष प्रधानता का वर्चस्व कैसे टूटेगा? हरियाणा की पंचायतें भी हतप्रभ करने वाले ऐसे फरमान सुनाती हैं क्योंकि उनके ऊपर खापों का असर साफ है।
14 अक्टूबर, 2012 का वाक्या याद आता है। तब सोनीपत में एक खाप पंचायत हुई थी। इसमें बलात्कार को रोकने के तरीकों पर बकायदा चर्चा की गई थी। जाट महासभा भवन के बड़े हॉल में विभिन्न खापों से करीब 100 लोग एकत्रित हुए। इसमें एकमात्र महिला थी। कई विचार आए। बलात्कारियों को अपराधी कहा गया। एक बुजुर्ग सदस्य ने पुरजोर तरीके से अपनी बात रखी कि लड़के और लड़कियों को स्कूल में साथ नहीं पढ़ाया जाए क्योंकि कम उम्र में जवानी जोश मारती है। रही सही कसर एक और बुजुर्ग ने पूरी कर दी। उन्होंने अपने हाथों को शरीर पर फेरते हुए बताया था कि टीवी में कैसे लड़का और लड़की लिपटते हुए दिखाई देते हैं और इन दृश्यों से कैसे वासना भड़कती है? कुछ ने शादी की उम्र 18 की जगह 16 करने पर जोर दिया। उनका तर्क था कि प्रजनन की क्षमता तो 12 साल में ही आ जाती है और अगर लड़की किसी के साथ भाग जाती है तो माता-पिता क्या करेंगे? ऐसा नहीं था कि किसी भी सदस्य ने ये बातें हवा में कही हों, यकीनन वैज्ञानिक तर्क भी दिए गए और तर्क ये थे कि अगर लड़की और उसके माता-पिता 15 साल की उम्र में शादी को तैयार हैं तो फिर कानूनी रोक क्यों? उस पंचायत में ये समाधान वे लोग दे रहे थे जिन्हें मुख्यमंत्री खट्टर ने ‘भगवान’ का दर्जा दिया है। वैज्ञानिक तर्क के साथ पंचायत में इस बात पर जोर दिया जा रहा था कि संविधान के आगे भी खाप पंचायतों को सर्वोपरि कैसे बनाया जाए? पंचायतों का सीधा मतलब ये था कि बाल विवाह को मंजूरी मिले। पूरी पंचायत लड़कियों पर ही केंद्रित थी। तथाकथित रूप से बेटियों के पैरों पर जंजीरें डाली जा रही थीं। पूरी पंचायत में आखिर ऐसा कोई प्रस्ताव क्यों नहीं आया कि लगाम लड़कों पर भी लगाई जानी चाहिए। लड़की कोई भेड़-बकरी नहीं है कि उसे आप घर के आंगन में बांध दें और चारा देते रहें। लड़कों को शिक्षा, सीख, संस्कार, नसीहत क्या ये जरूरी नहीं है? क्या लड़कों को यह नहीं बाताना चाहिए कि लड़कियां ताड़ने के लिए नहीं होतीं? क्या लड़कों को लड़कियों के प्रति आदर के संस्कार नहीं देने चाहिए? क्या लड़कों को यह नहीं सिखाना चाहिए कि गंदगी नजरों में नहीं रखनी चाहिए, बल्कि समाज को साफ करने में जोर देना चाहिए? आखिर इन बिगड़ैल लड़कोें को कौन सिखाएगा? इसके लिए पंचायतों में कब बहस होगी ओर कब कोई प्रस्ताव पास होगा? आखिर पंचायतें कब तक स्त्री केंद्रित रहेंगी? आखिर कब इन पंचायतों का रुख बदलकर शिक्षा, संस्कार और विकास की ओर जाएगा?
हरियाणा की पंचायतें अपने बेढंगे फरमानों के लिए शुरू से ही सुर्खियों में रही हैं। वो इसलिए क्योंकि जिन दो युवकों ने नाबालिग से दुष्कर्म किया है, उन्हें परोक्ष रूप से पंचायतों का संरक्षण प्राप्त है, नहीं तो पंचायतों का फैसला कुछ और ही होता जो पूरे प्रदेश सहित देश के लिए एक मिसाल हो सकता था। यकीनन, इन फैसलों से लड़कों की मानसिकता लड़कियों के प्रति और बलवती होती जाएगी। यदि ऐसे ही फैसले होते रहे तो आने वाले समय में हरियाणा के लिए दुष्कर्म अपराध नहीं होगा बल्कि रसूख हो जाएगा, जिसमें सिर्फ बेटियां पिसेंगीं। चाहे आपकी या हमारी। दोहरी मार सिर्फ बेटियां खाएंगी और इसके जिम्मेदार सिर्फ ये तथाकथित ‘भगवान’ होंगे, और कोई नहीं। अंधकार के ऐसे समय में राष्टÑीय अनुसूचित जाति आयोग के उपाध्यक्ष की पंचायतों पर कार्रवाई की टिप्पणी उसी लौ के समान है जो सद्बुद्धि और सद्मार्ग का रास्ता दिखा रहा है। सोनीपत की उस सभा में एक सज्जन ने तो यह तक कह दिया था कि यदि लड़की नहीं चाहे तो आप उससे बलात्कार नहीं कर सकते, चाहे तो कोशिश करके देख लेना? ये लड़की ही होती है जो किसी लड़के के साथ भाग जाती है, फिर बलात्कार के आरोप लगते हैं। यहां इन सज्जन को कोई यह बताने वाला नहीं था कि नाबालिग लड़की की गैंगरेप   में कितनी सहमति होती है? ऐसे लोगों ने ही नारीत्व का मर्दन कर रखा है। कहते हैं बच्चे देश का भविष्य होते हैं मगर इन कहावत में कहीं नहीं कहा गया कि ये लड़कों के लिए ही कही गई है। कल्पना चावला जैसी उड़ान भरने की क्षमता रखने वाली बेटियां जो लड़कों से कहीं भी कमतर नहीं हैं, साइना नेहवाल, सानिया मिर्जा, मैरीकॉम जैसी बेटियां जो जब मेडल जीतती हैं तो हर भारतीय का सिर फख्र से ऊंचा कर देती हैं, ऐसे लाखों सपने लिए जवान होती बेटियां असंस्कारहीन लड़कों की गंदी नजरों की भेंट चढ़ रही हैं और उन्हें ढांढस बंधाने तक के लिए कोई सामाजिक व्यवस्था अभी तक हमारे देश में नहीं बन सकी है। खाप पंचायतों की भी भूमिका इसमें नगण्य है। खाप पंचायतों से खासकर उम्मीद इसलिए की जाती है क्योंकि उनका वर्चस्व यहां सबसे ज्यादा है। यदि खापों का अस्तित्व बचाना है तो पंचायतों को अब अपनी जिम्मेदारी युवाओं को दे देनी चाहिए, जिसमें सबसे पहले बेटियों का चयन किया जाना चाहिए क्योंकि बेटियों को अब कमतर नहीं आंकना चाहिए। उनके नेतृत्व में खाप पंचायतें विकास करेंगीं, इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि बेशर्म लड़के शर्मदार बन जाएंगे।

संगठित उद्योगों के नीचे दबा असंगठित मजदूर

अंतरराष्टÑीय मजदूर दिवस पर विशेष
ज्ञानेन्द्र कुमार
बात 1806 की है जब अमेरिका में लगभग फैक्ट्री व्यवस्था शुरू हुई थी तब फिलाडेल्फिया के जूता कामगारों ने हड़ताल कर दी थी। अमेरिकी सरकार ने इन हड़ताली कामगारों के नेताओं पर साचिश रचने के आरोप में मुकदमे चलाए। इन मुकदमों से यह बात सामने आई कि मजदूरों से 19 या 20 घंटे तक काम कराया जा रहा है। यानि सूर्योदय से सूर्यास्त तक मजदूर काम करते थे। 1827 में भी फिलाडेल्फिया में काम के घंटे 10 करने के लिए निर्माण उद्योग के मजदूरों को एक हड़ताल कराने का श्रेय जाता है। यह मामला इसलिए चर्चा में आया क्योंकि मैकेनिक्स यूनियन आॅफ फिलाडेल्फिया दुनिया की पहली ट्रेड यूनियन मानी जाती है जिसके अधीन मजदूरों ने हड़ताल की थी। वहीं 1834 में न्यूयॉर्क में नानबाइयों की हड़ताल के दौरान वर्किंग मेन्स एडवोकेट नामक अखबार ने छापा था, ‘पावरोटी उद्योग में लगे कारीगर सालों से मिस्र के गुलामों से भी ज्यादा यातनाएं झेल रहे हैं। उन्हें हर 24 में औसत 18-20 घंटे तक काम करना होता है।’ 10 घंटे के कार्यदिवस की मांग ने इन इलाकों में एक आंदोलन का रूप ले लिया। इसी के चलते वॉन ब्यूरेन की संघीय सरकार को सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए काम के घंटे 10 करने की घोषणा करनी पड़ी। इसी के साथ विश्व में काम के घंटे 10 करने का संघर्ष शुरू हो गया। जैसे ही यह मांग कई उद्योगों ने मान ली, काम के घंटे 8 करने की मांग शुरू हो गई।
वर्तमान में विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में भी मजदूरों के हितों का अंग्रेजी व्यवस्था के अनुरूप ही ध्यान रखा जाता है मगर अधिकांशत: यह कागज तक ही सीमित रहता है। सच्चाई आज भी वही है जो 1806 में मजदूरों के साथ थी। तब मजदूरों के काम के घंटे सीमित नहीं थे। सरकारी, रक्षा तथा आयुध क्षेत्र में तो मजदूरों के आठ घंटे काम के हितों का संरक्षण हो गया मगर संगठित उद्योगों के बीच असंगठित मजदूरों की जान आज भी घिसट रही है। शहरों में बसे औद्योगिक क्षेत्र में मजदूर आज भी पुरानी व्यवस्था में जीने को मजबूर हैं। फर्क बस इतना है कि आठ की जगह नौ से 12 घंटे तक काम लिया जाता है। यही नहीं बिजली, सेतु जैसे कई सरकारी विभाग हैं जहां मजदूरों को मिलने वाली बीमा जैसी सुविधाओं से भी वंचित रखा जाता है। यह सब ठेका व्यवस्था (आउटसोर्सिंग) पनपने के कारण हुआ है। बिजली निगम के अधीन काम करने वाले ठेका मजदूरों को तो मौत के बाद उचित मुआवजा भी नहीं मिल पाता है। यदि वह गंभीर हो गया तो उसका इलाज उसके लिए सबसे बड़ी समस्या बन जाती है। बिजली निगम तो संविदा कर्मचारी कहकर पल्ला झाड़ लेती है जबकि अधिकांश ठेकेदार मजदूर के बीमे की रकम गबन कर जाते हैं, यही नहीं मासिक वेतन भी दो से तीन माह तक लटका देते हैं। ऐसी स्थित में ये मजदूर ठगे से खड़े रह जाते हैं।
देश के औद्योगिक क्षेत्रों में कानपुर एक बड़ा नाम है। यहां के औद्योगिक क्षेत्रों में मजदूरों की समस्या हमेशा से रही है। बिहार, झारखंड से जीवन यापन करने के नाम पर लोग यहां आ जाते हैं जो कम से कम दाम पर मजबूरी में मजदूरी कर रहे हैं। इन्हें फैक्ट्री मालिकों का बंधक मजदूर भी कहना कुछ गलत न होगा। इन मजदूरों की जरूरत बस इतनी है कि वे घरों से दूर काम करने निकले हैं, कुछ पैसे बनाने निकले हैं, जिससे अपना व अपने परिवार का जीवन यापन कर सकें। इस संपन्न औद्योगिक क्षेत्र में कागजों पर तो मजदूर खूब पूरा पैसा पाते हैं मगर सच्चाई यह है कि चाहे चमड़े का काम हो या फिर रांगा गलाने तथा चुर्री बनाने का ही काम क्यों न हो, यहां मजदूरों की प्रतिदिन की कमाई 2013 तक 60 रुपये थी तथा काम के घंटे नौ थे। इसके ऊपर इन्हें ओवरटाइम भी दिया जाता था, जिसमें न के बराबर रुपये दिए जाते थे मगर इसके लिए ये अधिक समय तक ज्यादा काम करते थे। दुर्भाग्य, अभी तक इन मजदूरों की स्थिति यही है। अब फर्क यह है कि वेतन 100 रुपये तक प्रतिदिन मिलने लगा है। पीतल ढलाई कारखानों में तो छोटे बच्चों से 20 से 50 रुपये प्रतिदिन पर आज भी काम चलाया जाता है। कुछ ऐसी ही हालत अगरबत्ती उद्योग की भी है। यहां अगरबत्ती निर्माण में लगे मजदूरों से 12 घंटे तक काम लिया जा रहा है और पूरा वेतन उन्हें इसलिए नहीं दिया जाता है कि वे अगले दिन काम पर आएं। शरीर के निढाल होने तक मजदूर काम कर रहा है जबकि
उसकी सुविधाओं को परखने का काम करने वाला सरकारी तंत्र कमीशन बटोरकर अपने एसी घरों में चैन से सो रहा है।
मजदूर क्रांति संघर्ष के साक्षी अलेक्जेंडर ट्रैक्सर्नबर्ग लिखते हैं कि पचास के दशक के दौरान लेबर यूनियनों को संगठित करने की गतिविधियों ने आठ घंटे काम की इस नई मांग को काफी बल दिया। यह मांग भी कुछ सुसंगठित उद्योगों ने मान ली। इसके बाद यह आंदोलन अमेरिका के अलावा रूस सहित हर उस जगह प्रचलित हो गया जहां उभरती हुई पूंजीवादी व्यवस्था के तहत मजदूरों का शोषण हो रहा था। यह बात इस तथ्य से सामने आती है कि अमेरिका से पृथ्वी के दूसरे छोर पर स्थित आॅस्ट्रेलिया में निर्माण उद्योग के मजदूरों ने यह नारा दिया, ‘आठ घंटे काम, आठ घंटे मनोरंजन, आठ घंटे आराम।’ उनकी यह मांग 1856 में मान ली गई। कई राज्य सरकारों ने आठ घंटे के काम का कानून पास करना स्वीकार कर लिया था। अमेरिकी कांग्रेस ने 1868 में यह कानून पारित कर दिया। अमेरिकियों के साथ ही यह कानून देश में भी आ गया। अंग्रेज चले गए, कानून रह गया। समय-समय पर संशोधित भी हुआ। कागजों पर इसके कई ग्राफ बने मगर जमीनी हकीकत यह है कि मजदूरों को उनके हक का लाभ आज भी नहीं मिल पा रहा है।