Saturday, January 3, 2015

अब प्लानिंग नहीं पॉलिसी बनेगी


स्वतन्त्रता दिवस पर योजना आयोग को खत्म करने के प्रधानमंत्री के बयान के बाद मुझे जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की वो बात याद आ रही है जब उन्होंने कहा था कि योजना आयोग मुख्यमंत्रियों की हाजिरी  की जगह है। वहां मुख्यमंत्री याचक बनकर जाता है जबकि उसे राज्य के हिसाब से कुछ नहीं मिलता है। उमर अब्दुल्ला की यह पीड़ा सिर्फ अकेले उनकी नहीं है, कमोबेश भारत के सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की है। यही नहीं खुद प्रधानमंत्री के दिल में भी एक टीस है क्योंकि प्रधानमंत्री बनने से पूर्व वह गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके हैं तब उन्हें भी याचक की तरह योजना आयोग के दफ्तर में हाजिरी लगानी पड़ती थी। अब जब नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री हैं तब उन्हें अपने दिल में चुभी ‘याचक की फांस’ निकालने का अवसर मिल गया। उन्होंने अपने बड़े मुद्दों में योजना आयोग के प्रारूप को बदलने को भी वरीयता दी। यकीनन, योजना आयोग का प्रारूप बदलते समय उन्हें अपने दिल  में चुभी ‘याचक की फांस’ नजर आई होगी तभी उन्होंने नीति आयोग में राज्यों की सहभागिता पर विशेष ध्यान दिया है। यह जानना आवश्यक है कि प्रधानमंत्री ने नीति (नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफार्मिंग इंडिया) आयोग का प्रारूप सिर्फ हवा में ही नहीं तय कर दिया। उन्होंने नीति आयोग नाम रखने से पहले बेहद कड़ा मंथन किया होगा क्योंकि यह सिर्फ आयोग  का नाम भर बदलने की बात नहीं थी, उन्हेंं देश की जनता को यह भी बताना था कि प्लानिंग को पॉलिसी में कैसे बदला जाता है? प्रबंधन का प्रथम सूत्र ही प्लानिंग होता है यानि किसी रूपरेखा का ढांचा तैयार करना। यही काम केंद्र सरकार के योजना अयोग द्वारा सभी राज्यों के लिए समान रूप से किया जाता था मगर प्लानिंग तो प्रबंधन के सूत्र का पहला वाक्य है। प्लानिंग सही भी हो सकती है ओर गलत भी। सही प्लानिंग देश और राज्यों को विकास के पथ पर ले जाती है जबकि गलत प्लानिंग बेड़ागर्क कर देती है। योजना आयोग द्वारा राज्यों के विकास को लेकर बराबर प्र्लांनग तो की जा रही थी मगर आयोग खुद तय नहीं कर पा रहा था कि क्या प्लानिंग वाकई सही दिशा में हो रही  है क्योंकि राज्यों की भौगोलिक परिस्थिति के हिसाब से उनकी क्षेत्रीय समस्याओं को आयोग द्वारा तरजीह नहीं मिल पा रही थी, इसी बात से साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि योजना आयोग कितना सफल था? दिल्ली में बैठकर असम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, उड़ीसा जैसे राज्य और पांडिचेरी, दमनद्वीप, अंडमान नीकोबार जैसे केंद्र शासित प्रदेशों के विकास का खाका खींचा जाता था और जब दिल्ली में विकास की भूमिका गड़ी जाती थी तब इन राज्यों की संरचनाओं और समस्याओं को तरजीह भी नहीं दी जाती थी। यही कारण था कि कोई भी राज्य और राज्यों के मुख्यमंत्री योजना आयोग के कामकाज से संतुष्ट नहीं थे। खुद नरेन्द्र मोदी भी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब योजना आयोग से खिन्न रहते थे। उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री लंबे समय तक गुजरात का प्रतिनिधित्व किया है। शायद इसीलिए उन्होंने देश की अग्रणी समस्याओं में योजना आयोग को भी शामिल किया है।
लाल किले की प्राचीर पर 15अगस्त को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी  ने अवाम से कई वायदे किए थे। इसमें सफाई अभियान, मेक इन इंडिया और योजना आयोग के प्रारूप का बदलाव भी शामिल था। प्रधानमंत्री साफगोई से अपने उन वादों को एक-एक कर पूरा करते नजर आ रहे हैं। देश के स्वतंत्रता दिवस पर किया गया पहले वादे की शुरुआत उन्होंने महात्मा गांधी की जयंती यानि दो अक्टूबर से की। स्वस्थ समाज स्वच्छ समाज के नारे के साथ गांधी जी को समर्पित देश भर में सफाई अभियान शुरू कर दिया गया। बतौर प्रधानमंत्री अभियान की शुरुआत करते हुए उन्होंने खुद झाड़ू उठाई। अकबर के नौरत्न की तर्ज पर उन्होंने भी सफाई के नौरत्न तैयार किए। अमेरिका जाने से पूर्व प्रधानमंत्री ने मेक इन इंडिया का स्वागत करते हुए दुनिया को बताया कि विश्व में युवाओं का सबसे बड़ा बाजार इस समय भारत है। विश्व पटल पर उन्होंने भारत की विकास यात्रा को तेजी दिलाई। चीन की तर्ज पर भारत में भी बुलेट टे्रन के सपने को साकार करने की पहल भी उन्होंने ही की। देश की सबसे पहली बुलेट ट्रेन के लिए मुंबई-अहमदाबाद मार्ग भी तय कर दिया गया। मोदी ने किसी भी बड़ी लकीर को छोटा नहीं किया बल्कि उन्होंने अपनी लकीर को ही इतना बड़ा कर दिया कि बाकी लकीरें छोटी दिखाई पड़ने लगीं। मुझे लगता है कि केंद्र सरकार यदि रेलगाड़ी का इंजन है तो राज्य सरकारें डिब्बा हैं। इसलिए रेलगाड़ी को विकास पथ पर तेजी से दौड़ाना है तो दोनों में मितव्ययता, सामंजस्य और एक साथ चलने की परंपरा को पैदा करना होगा। भारतीय राजनीति में हमेशा से ही राज्य और केंद्र में समन्वय न होने के आरोप लगते रहे हैं। केंद्र में जिस पार्टी की सत्ता होती है, राज्यों में दूसरी पार्टी के मुख्यमंत्री हमेशा आरोप लगाते हैं कि केंद्र ने राज्य के विकास की ओर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने विकास के लिए जो पैकेज केंद्र से मांगा था वह जारी ही नहीं किया गया। अब नरेन्द्र मोदी ने इस विवाद को ही जड़ से खत्म कर दिया है। इसीलिए, नीति आयोग के पीछे उन्होंने प्लानिंग को नहीं बल्कि पॉलिसी को तवज्जो दी है। इसका खाका भी बेहद खूबसूरत तैयार किया गया है। इसमें राजयों को शक्तिशाली बनाया गया है जो विकास के लिए बेहद जरूरी है।
देश के विकास के लिए प्रधानमंत्री को योजना आयोग की जगह नीति आयोग क्यों बनाना पड़ा, इस पहलू पर भी थोड़ा गौर करते हैं। आजादी के बाद प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू  की अगुआई में योजना आयोग का गठन 15 मार्च 1950 को हुआ था। प्रधानमंत्री इसके चेयरमैन थे। इसके बाद डिप्टी चेयरमैन का पद था। विभिन्न क्षेत्रों के जानकार व अर्थशास्त्रियों में कुछ इसके सदस्य होते थे। लोगों का जीवन स्तर सुधारना ही इसके गठन का मकसद था। संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल, उत्पादन में वृद्धि और रोजगार के अवसर बढ़ाने के साथ ही सभी संसाधनों के आकलन की जिम्मेदारी भी योजना आयोग के पास थी। योजना आयोग का सबसे कमजोर पक्ष राज्यों की भूमिका को लेकर था क्योंकि नीति-नियंता दिल्ली में बैठकर राज्यों की रूपरेखा तैयार कर देते थे। राज्यों की भूमिका इसमें कोई खास नहीं थी। केंद्रीय स्तर पर योजनाएं बनती थीं जो सभी राज्यों में लागू होती थीं। राज्य विशेष की जरूरतों का ख्याल नहीं रखा जाता था। राज्य हर साल योजना राशि बढ़वाने के लिए चक्कर लगाते रहते थे। राज्यों में विरोधी दल की सरकारों के साथ भेदभाव के आरोप भी खूब लगे। योजना आयोग के काम का तरीका भी केंद्र से राज्यों की ओर एकतरफा था। योजना आयोग ने पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत की। पहली योजना 1951 में लागू की गई। 65 साल में 12 योजनाओं पर करीब 200 लाख करोड़ रुपये खर्च हुए। शुरू की आठ योजनाओं में सार्वजनिक क्षेत्र पर जोर था। बुनियादी और भारी उद्योगों में काफी निवेश किया गया। नौवीं योजना से सार्वजनिक क्षेत्र पर जोर कम हो गया।
वहीं केंद्र ने नीति आयोग का जो ढांचा तैयार किया है उसमें प्रधानमंत्री अध्यक्ष होंगे। पहले की परंपरा से हटते हुए इसमें सीईओ जैसे पद को शामिल किया गया है साथ ही वाइस चेयरमैन (उपाध्यक्ष) भी रहेंगे। इन दोनों पदों पर नियुक्ति प्रधानमंत्री करेंगे। कुछ पूर्णकालिक सदस्य होंगे। इनकी संख्या अभी तय नहीं की गई है। दो पार्ट टाइम सदस्य विश्वविद्यालयों और रिसर्च संस्थानों से जुड़े होंगे। चार केंद्रीय मंत्री पदेन सदस्य होंगे। विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ आमंत्रित सदस्य के रूप में शामिल होंगे। इन्हें भी प्रधानमंत्री नामित करेंंगे। नीति आयोग में राज्यों की भूमिका पर विशेष जोर दिया गया है। दो राज्यों के बीच या क्षेत्रीय विवाद निपटाने के लिए क्षेत्रीय काउंसिलें बनेंगी। इसमें क्षेत्र विशेष के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल होंगे। इसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री या उनके द्वारा नामित व्यवक्ति करेंगे। नीति आयोग का ध्येय वाक्य ही है- मजबूत राज्य ही मजबूत राष्ट्र का गठन करते हैं। नीति आयोग के क्रियान्वयन के लिए आयोग  ऐसा सिस्टम बनाएगा, जिससे गांव स्तर पर योजनाएं बन सकें ओर उन्हें सरकार में शीर्ष स्तर तक पहुंचाया जा सके। आयोग समाज के उस तबके पर विशेष ध्यान देगा जिन्हें विकास का पूरा लाभ नहीं मिल रहा है। दीर्घकालिक नीति बनाने के अलावा अमल का तरीका भी बताया जाएगा। सबसे बड़ी बात कि कितना काम हुआ और नीति कितनी प्रभावी है, आयोग इस पर भी नजर रखेगा। हालांकि आयोग में सीईओ की परिपाटी पहली बार शुरू की जा रही है, इसलिए इसमें कामकाज भी कॉरपोरेट संस्कृति से किया जाएगा। सीईओ भारत सरकार में सचिव स्तर के अधिकारी होंगे मगर प्रश्न उठता है कि एयर कंडीशन में बैठकर नीति बनाने वाले अफसर क्या कॉरपोरेट कल्चर जैसा माहौल बना पाएंगे? कॉरपोरेट कल्चर लाना एक बात है जबकि उस कल्चर में सरकारी अधिकारियों का काम करना दूसरी बात। मोदी सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि सरकारी मशीनरी तंत्र से जाम अफसर कॉरपोरेट कल्चर भी सीख सकें। दूसरी ओर, योजना आयोग का अपग्रेडेशन कांग्रेस को रास नहीं आ रहा है। कांग्रेस ने भाजपा पर नया आयोग बनाकर नेहरू की विरासत को खत्म करने जैसा आरोप लगाया है। कांग्रेस विकास नहीं बल्कि केंद्र के इस व्यवस्था परिवर्तन से नाराज है। वह नीति आयोग पर भाजपा को घेरने की रणनीति जरूर तैयार करेगी, इसलिए मोदी सरकार को इससे उबरने के लिए भी नीति आयोग को चुनौतीपूर्ण ढंग से विकास पथ न सिर्फ चलाना होगा बल्कि दौड़ाना होगा।

- ज्ञानेन्द्र